ये लोकतंत्र है या भ्रमतंत्र ?

सर्वप्रिया सांगवान
बंगाल में बस 2-3 दिन की रिपोर्टिंग में ही सुनने को मिला कि बीते पंचायत चुनावों में बहुत से लोगों को वोट नहीं करने दिया गया जिन इलाक़ों में ममता बनर्जी को वोट कम पड़ रहा था. एक सब्ज़ी बेचने वाली ने कहा कि मैंने 50 हज़ार शारदा में रखा था जो चला गया. अगर कोई वो मुझे वापस दिलवा दे तो मेरे तीन बच्चों की ज़िंदगी ठीक चल सकती है. शारदा घोटाले में तृणमूल काँग्रेस के नेताओं का नाम भी आया था. ऐसे कई वाकया हुए जहाँ ममता बनर्जी के कार्टून बनाने या उनके ख़िलाफ़ लिखने वालों को गिरफ़्तार किया गया. हाल ही में एक BJP कार्यकर्ता को भी उनके कार्टून पर गिरफ़्तार कर लिया गया. समस्या बस इतनी है कि जब जनता चुनाव कर रही है तो इन सब नेताओं को सापेक्ष तौर पर, रिलेटिव टर्म में देखने को मजबूर है. मतलब कि ये नेता उससे तो अच्छा है, फलाने से तो बेहतर है. ये तरीक़ा हमें कहाँ ले जा रहा है?
कहीं नहीं क्योंकि जिन लोगों को आप 5-10 साल पहले हराते हैं, उन्हें फिर से लाने पर मजबूर होते हैं. बल्कि मजबूरी को भी पसंद का नाम दे रहे हैं. बिहार के सिवान में लोग जेल काट रहे मोहम्मद शहाबुद्दिन की पत्नी को भी उन्हीं के नाम पर वोट दे रहे हैं क्योंकि उन्होंने स्कूल, कॉलेज के लिए काम किया था. इस वजह से वो उनके गुनाह भी माफ़ कर रहे हैं. उसी तरह जैसे लोगों ने मोदी में विकल्प खोज लिया. लोगों को लालू प्रसाद भी फिर से पसंद आ गए क्योंकि वो सेक्युलर हैं और इसलिए भ्रष्टाचार भी माफ़ है उनका. सिवान में वैसे भी सामने विकल्प क्या है, जेडीयू से बाहुबली अजय सिंह की पत्नी. अजय सिंह पर ख़ुद कई गम्भीर मामले दर्ज हैं. वो ख़ुद कहती हैं कि वो संसद संभालेंगी और पति क्षेत्र संभालेंगे. कोई लोकतंत्र बचाने का दावा कर रहा है, कोई पाकिस्तान से देश बचाने का. अपनी-अपनी सहूलियत से तर्क-कुतर्क गढ़े जा रहे हैं. लोकतंत्र में सब पर्फ़ेक्ट नहीं होता है लेकिन उसे पर्फ़ेक्शन तक ले जाने की चाहत ही दरअसल हमारे संविधान की प्रस्तावना है. इस चाहत में ही हमारे लोकतंत्र का सम्मान है. अब बस सोच कर देखिए कि उस पूरी प्रस्तावना में हमारे नेता कहाँ फ़िट बैठ रहे हैं. ये लोकतंत्र है या भ्रमतंत्र है?